बड़े अरसो बाद जैसे
खुदको पा लिया,
बदला बदला सा मेरा चेहरा,
हरदम उतरासा उखाड़ासा वो,
आज अचानक चमक रहा था,
बेनूर आँखों में रोशनी भरी थी,
मैं ही हूँ? शायद आईना?
या कुछ और?
या सिर्फ मेरा भरम?
सोचा उसे छू लूँ,
बाहों में अपनी भर लिया,
वो ही जज़बात,
खुदको पाने का अहेसास,
बेजान बाहों में जैसे
जान आ गयी,
अमावस्या की रात में
चांदनी छा गयी,
क्या है ये?
खुदको कोई कैसे पा सकता है?
कौन है ये?
जो मुझमे जिंदगी भर रहा है?
वो बाहों से जाग जब आँखें खुली,
"उन्हें" देखा अपने सामने,
हस पड़ी में खुदपे,
बड़े अरसो बाद मैंने
उनको पा लिया।
(C) D!sha Joshi.
Friday, 22 February 2013
Monday, 18 February 2013
खामोशियाँ
नीला सा आसमान,
चन्दा की चांदनी,
कहीं संभलते तो कहीं
टूट के गिरते ये तारे,
इन हसीन वादियों में-
नजाने कौन सी ख्वाहिशों में
बेह रही हूँ मैं,
एक हवा झोका करीब आके
मेरे कानों में कुछ केह गया,
नींद से जागी देखूं
हर तरफ खामोशी सा रेह गया,
अँधेरा ही अँधेरा,
सुनाई दे रही है तो बस
कुछ अनकही कहानिया,
अनगिनत ये ख्वाब,
अनगिनत ख्वाहिशें,
सोचु कभी तो लगता है जैसे,
मुझको ही खामोश कर देती है
मेरी ही ख्वाहिशों की खामोशियाँ।
(C) D!sha Joshi.
चन्दा की चांदनी,
कहीं संभलते तो कहीं
टूट के गिरते ये तारे,
इन हसीन वादियों में-
नजाने कौन सी ख्वाहिशों में
बेह रही हूँ मैं,
एक हवा झोका करीब आके
मेरे कानों में कुछ केह गया,
नींद से जागी देखूं
हर तरफ खामोशी सा रेह गया,
अँधेरा ही अँधेरा,
सुनाई दे रही है तो बस
कुछ अनकही कहानिया,
अनगिनत ये ख्वाब,
अनगिनत ख्वाहिशें,
सोचु कभी तो लगता है जैसे,
मुझको ही खामोश कर देती है
मेरी ही ख्वाहिशों की खामोशियाँ।
(C) D!sha Joshi.
Sunday, 10 February 2013
आहटें
दुपहर को देखा न जाने
फर्श पर ये परछाई है किसकी,
वो बंध दरवाज़ा,
खुली हुई खिड़की,
फर्श पर लेटी धुप ,
धुप में बदन को सेकती ये परछाई,
खिड़की से आती हवा,
कुछ बातें करते रहेते है,
आहटों सा देते रहेते है,
कुदरत की आहटें है या खुद कुदरत?
नासमझ मैं ये आहटों को
लफ्जों में बुनती रहेती हूँ,
वो फर्श पे लेटी परछाई में अपनी
गेहेराई को ढूँढती रहेती हूँ।
(C) D!sha Joshi.
फर्श पर ये परछाई है किसकी,
वो बंध दरवाज़ा,
खुली हुई खिड़की,
फर्श पर लेटी धुप ,
धुप में बदन को सेकती ये परछाई,
खिड़की से आती हवा,
कुछ बातें करते रहेते है,
आहटों सा देते रहेते है,
कुदरत की आहटें है या खुद कुदरत?
नासमझ मैं ये आहटों को
लफ्जों में बुनती रहेती हूँ,
वो फर्श पे लेटी परछाई में अपनी
गेहेराई को ढूँढती रहेती हूँ।
(C) D!sha Joshi.
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