एक वो है,
गेहरी सांस ली,
और खुले आसमान कि ख्वाहिश में,
ज़ंझीरे तोड़ के ,
निकल पड़ा
गिरने का डर तो है,
टूटके बिखरने का डर
सारे डर को पीछे छोड़,
दरिया में डूबने कि चाह में,
ऊपर उड़ान भरी उसने,
बहोत उपर… और उपर…
और एक मैं,
चार दीवारो के बिच,
न कोई ज़ंझीर है मेरी,
अपने कोने में बैठ,
आसमान में उड़ रही हूँ,
न गिरने का डर है,
न टूटके बिखरने का,
पंख फैलाये उड़ रही हूँ,
दरिया में डूब भी रही हूँ मैं,
अपनेआप में उड़ रही हूँ,
अपेनआप में डूब भी रही हुँ मैं
अंदर उड़ान भरी,
अपने अंदर ... और भी अंदर ...
(C) D!sha Joshi
गेहरी सांस ली,
और खुले आसमान कि ख्वाहिश में,
ज़ंझीरे तोड़ के ,
निकल पड़ा
गिरने का डर तो है,
टूटके बिखरने का डर
सारे डर को पीछे छोड़,
दरिया में डूबने कि चाह में,
ऊपर उड़ान भरी उसने,
बहोत उपर… और उपर…
और एक मैं,
चार दीवारो के बिच,
न कोई ज़ंझीर है मेरी,
अपने कोने में बैठ,
आसमान में उड़ रही हूँ,
न गिरने का डर है,
न टूटके बिखरने का,
पंख फैलाये उड़ रही हूँ,
दरिया में डूब भी रही हूँ मैं,
अपनेआप में उड़ रही हूँ,
अपेनआप में डूब भी रही हुँ मैं
अंदर उड़ान भरी,
अपने अंदर ... और भी अंदर ...
(C) D!sha Joshi
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