Monday, 14 July 2014

अलफाज़



कभी कभी  ऐसी भी रात आई हैं
जब ढूंढने पर भी
मुझे अलफाज़ नहीं मिले,
बहोत बार अल्फाज़ो को
सजाने को दिल चाहा है,
पर वो मेरे अंदर से बाहर आये भी
और नहीं भी,
कभी तो अल्फ़ाज़ोने अपने आप ही
मेरे हाथों से उन्हें बुन लिया हैं,
कभी मुझको ही मेरी नज़म मैं छेद मिला हैं,
कई रात ऐसी
के सोना चाहते हुए भी
मेरे अल्फाज़ो ने मुझे सोने नहीं दिया,
मैं भी तो उनकी बातों में आ जाती हूँ.
देखते ही देखते सुबह हो जाती है,
कई रात ऐसे ही
अल्फाज़ो की जंजीरों में बंधे हुए गुज़रती है…
कई रात मैं खुद
उन ज़ंजीरों में बंधने के लिए तड़पती रहती हूँ.

- Disha Joshi

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