Sunday 3 May 2015

"और मैं हूँ "

धीरे धीरे सब ठीकहो रहा था
ज़िंदगी जैसे अब शायद
मेरी और देख रही थी,
एक पहेली जिसे सुलझा नहीं सकते,
सुलझाने से  उलझन मेरी ही बढ़ रही थी.
पर अब लग रहा था के सुलझ रही वो,
कितने साल, कितने महीने
मैंने रातों में गुज़ारे थे,
वो रातें
खामोशी में तड़पती वो रातें
पर अब अँधेरा डूब रहा था,
रोशनी उभर रही थी कहीं से
सब को लग रहा था अब सुबह होगी
वक़्त बदल रहा था, सब खुश थे,
अचानक अँधेरा बढ़ गया
मेरी नज़रो के सामने
रौशनी मुझसे छीन गई
अँधेरे में मैं थी
या मुझमे ही अँधेरा था.
अँधेरा ही अँधेरा

बेहोशसी  हो गई में
आँखें खुली जब यकीन ना हुआ,
उझालेने मुझे हर तरफ से घेर लिया था
मेरे अंदर से रौशनी उभर रही थी
के रौशनी के अंदर से में !
कोई अपना आस पास दीख नहीं रहा था,
पर में नयी थी
आस पास के लोग भी नये थे,
सब रोशन था
खिली खिली सुबह के जैसे,
अब अंदर कोई दर्द ना था
कुछ था तो वो रौशनी और बस सुकुन था
शायद अँधेरे के इस पार आ गई थी में
मेरी मौत के इस पार
जहां रौशनी है
नया जन्म है
और में हूँ
- Disha Joshi

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