Wednesday 1 May 2013

बंध कमरे में.

बंध कमरे में,
मैं और वो,
आज फिरसे
एकदूसरे के सामने आ गए,
सिर्फ मुझे दीखता है वो,
शायद नाराज़ है मुझसे!
प्यार से उसे अपनी गोद में बिठाया,
आज कितने दिनों बाद
उसे इतने करीब से देखा,
कैसे मनाऊं?
प्यार करूँ?
सोच रही हूँ,
क्या करू? क्या जताऊं ?
छू लूँ? किस तरह उसे पा लूँ?
उसने नाराज़गी के साथ पूछा मुझको,
हकीकत क्यों नहीं बना देते मुझे अपनी?
कितना भोला है वो !
हकीकत बनाना चाहते हुए भी
नहीं बना सकती।
वक़्त की जंजीरे,
समाज की,दुनिया की जंजीरे,
कैसे समझाऊं उसे?
आज भी एक हादसे से
वो सामने आ गया था,
कभी कभी सपनो के पंख निकल आते है,
बंध कमरे में।


(C) Disha Joshi.

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