Thursday 5 December 2013

रात

धीमे धीमे से गुज़रती है रात
जैसे एक मॉम है पिघलती है रात.

झोंका हवा का जो छू के गया तो,
देखना फिर कितना मचलती है रात.

सन्नाटो कि पूंजी को दिल में समेटे
दबे पाँव मुझमें भी चलती है रात.

गुमसुम- खामोश इसे भोली न समझो
कई शकले पल में बदलती है रात .

वोह क्या चाहती है नहीं जान पाती,
कभी कभी मुझसी तड़पती है रात .

वोह जानती है मुझको न चाहूं में उसको,
फिर भी
हर रात मुझमें उछलती है रात .

सवेरा जो आया हर तरफ है धुंआ,
देखो? मुझसे कितना ये जलती है रात .

(C) Disha Joshi

No comments:

Post a Comment